भारत का इतिहास और संस्कृति गतिशील है और यह मानव सभ्यता की शुरूआत तक जाती है। यह सिंधु घाटी की रहस्यमयी संस्कृति से शुरू होती है और भारत के दक्षिणी इलाकों में किसान समुदाय तक जाती है। भारत के इतिहास में भारत के आस पास स्थित अनेक संस्कृतियों से लोगों का निरंतर समेकन होता रहा है। उपलब्ध साक्ष्य सुझाते हैं कि लोहे, तांबे और अन्य धातुओं के उपयोग काफी शुरूआती समय में भी भारतीय उप महाद्वीप में प्रचलित थे, जो दुनिया के इस हिस्से द्वारा की गई प्रगति का संकेत है। चौंथी सहस्राब्दि बी. सी. के अंत तक भारत एक अत्यंत विकसित सभ्यता के क्षेत्र के रूप में उभर चुका था।
सिंधु घाटी की सभ्यता
भारत का इतिहास सिंधु घाटी की सभ्यता के जन्म के साथ आरंभ हुआ, और अधिक बारीकी से कहा जाए तो हड़प्पा सभ्यता के समय इसकी शुरूआत मानी जाती है। यह दक्षिण एशिया के पश्चिमी हिस्से में लगभग 2500 बीसी में फली फूली, जिसे आज पाकिस्तान और पश्चिमी भारत कहा जाता है। सिंधु घाटी मिश्र, मेसोपोटामिया, भारत और चीन की चार प्राचीन शहरी सबसे बड़ी सभ्यताओं का घर थी। इस सभ्यता के बारे में 1920 तक कुछ भी ज्ञात नहीं था, जब भारतीय पुरातात्विक विभाग ने सिंधु घाटी की खुदाई का कार्य आरंभ किया, जिसमें दो पुराने शहरों अर्थात मोहन जोदाड़ो और हड़प्पा के भग्नावशेष निकल कर आए। भवनों के टूटे हुए हिस्से और अन्य वस्तुएं जैसे कि घरेलू सामान, युद्ध के हथियार, सोने और चांदी के आभूषण, मुहर, खिलौने, बर्तन आदि दर्शाते हैं कि इस क्षेत्र में लगभग पांच हजार साल पहले एक अत्यंत उच्च विकसित सभ्यता फली फूली।
सिंधु घाटी की सभ्यता मूलत: एक शहरी सभ्यता थी और यहां रहने वाले लोग एक सुयोजनाबद्ध और सुनिर्मित कस्बों में रहा करते थे, जो व्यापार के केन्द्र भी थे। मोहन जोदाड़ो और हड़प्पा के भग्नावशेष दर्शाते हैं कि ये भव्य व्यापारिक शहर वैज्ञानिक दृष्टि से बनाए गए थे और इनकी देखभाल अच्छी तरह की जाती थी। यहां चौड़ी सड़कें और एक सुविकसित निकास प्रणाली थी। घर पकाई गई ईंटों से बने होते थे और इनमें दो या दो से अधिक मंजिलें होती थी।
उच्च विकसित सभ्यता हड़प्पा में अनाज, गेहूं और जौ उगाने की कला ज्ञात थी, जिससे वे अपना मोटा भोजन तैयार करते थे। उन्होंने सब्जियों और फल तथा मांस, सुअर और अण्डे का सेवन भी किया। साक्ष्य सुझाव देते हैं कि ये ऊनी तथा सूती कपड़े पहनते थे। वर्ष 1500 से बी सी तक हड़प्पन सभ्यता का अंत हो गया। सिंधु घाटी की सभ्यता के नष्ट हो जाने के प्रति प्रचलित अनेक कारणों में शामिल है आर्यों द्वारा आक्रमण, लगातार बाढ़ और अन्य प्राकृतिक विपदाओं का आना जैसे कि भूकंप आदि।
वैदिक सभ्यता
प्राचीन भारत के इतिहास में वैदिक सभ्यता सबसे प्रारंभिक सभ्यता है जिसका संबंध आर्यों के आगमन से है। इसका नामकरण हिन्दुओं के प्रारम्भिक साहित्य वेदों के नाम पर किया गया है। वैदिक सभ्यता सरस्वती नदी के किनारे के क्षेत्र जिसमें आधुनिक भारत के पंजाब और हरियाणा राज्य आते हैं, में विकसित हुई। वैदिक आर्यों और हिन्दुओं का पर्यायवाची है, यह वेदों से निकले धार्मिक और आध्यात्मिक विचारों का दूसरा नाम है। बड़े पैमाने पर स्वीकार दृष्टिकोणों के अनुसार आर्यों का एक वर्ग भारतीय उप महाद्वीप की सीमाओं पर ईसा पूर्व 2000 के आसपास पहुंचा और पहले पंजाब में बस गया, और यही ऋगवेद के स्त्रोतों की रचना की गई।
आर्य जन जनजातियों में रहते थे और संस्कृत भाषा का उपयोग करते थे, जो भाषाओं के भारतीय – यूरोपीय समूह के थे। क्रमश: आर्य स्थानीय लोगों के साथ मिल जुल गए और आर्य जनजातियों तथा मूल अधिवासियों के बीच एक ऐतिहासिक संश्लेषण हुआ। यह संश्लेषण आगे चलकर हिन्दुत्व कहलाया। इस अवधि के दो महान ग्रंथ रामायण और महाभारत थे।
बौद्ध युग
भगवान गौतम बुद्ध के जीवनकाल में, ईसा पूर्व 7 वीं और शुरूआती 6 वीं शताब्दि के दौरान सोलह बड़ी शक्तियां (महाजनपद) विद्यमान थे। अति महत्वपूर्ण गणराज्यों में कपिलवस्तु के शाक्य और वैशाली के लिच्छवी गणराज्य थे। गणराज्यों के अलावा राजतंत्रीय राज्य भी थे, जिनमें से कौशाम्बी (वत्स), मगध, कोशल, और अवन्ति महत्वपूर्ण थे। इन राज्यों का शासन ऐसे शक्तिशाली व्यक्तियों के पास था, जिन्होंने राज्य विस्तार और पड़ोसी राज्यों को अपने में मिलाने की नीति अपना रखी थी। तथापि गणराज्यात्मक राज्यों के तब भी स्पष्ट संकेत थे जब राजाओं के अधीन राज्यों का विस्तार हो रहा था।
बुद्ध का जन्म ईसा पूर्व 560 में हुआ और उनका देहान्त ईसा पूर्व 480 में 80 वर्ष की आयु में हुआ। उनका जन्म स्थान नेपाल में हिमालय पर्वत श्रंखला के पलपा गिरि की तलहटी में बसे कपिलवस्तु नगर का लुम्बिनी नामक निकुंज था। बुद्ध, जिनका वास्तविक नाम सिद्धार्थ गौतम था, ने बुद्ध धर्म की स्थापना की जो पूर्वी एशिया के अधिकांश हिस्सों में एक महान संस्कृति के रूप में विकसित हुआ।
सिकंदर का आक्रमण
ईसा पूर्व 326 में सिकंदर सिंधु नदी को पार करके तक्षशिला की ओर बढ़ा व भारत पर आक्रमण किया। तब उसने झेलम व चिनाब नदियों के मध्य अवस्थ्ति राज्य के राजा पौरस को चुनौती दी। यद्यपि भारतीयों ने हाथियों, जिन्हें मेसीडोनिया वासियों ने पहले कभी नहीं देखा था, को साथ लेकर युद्ध किया, परन्तु भयंकर युद्ध के बाद भारतीय हार गए। सिकंदर ने पौरस को गिरफ्तार कर लिया, तथा जैसे उसने अन्य स्थानीय राजाओं को परास्त किया था, की भांति उसे अपने क्षेत्र पर राज्य करने की अनुमति दे दी। दक्षिण में हैडासयस व सिंधु नदियों की ओर अपनी यात्रा के दौरान, सिकंदर ने दार्शनिकों, ब्राह्मणों, जो कि अपनी बुद्धिमानी के लिए प्रसिद्ध थे, की तलाश की और उनसे दार्शनिक मुद्दों पर बहस की। वह अपनी बुद्धिमतापूर्ण चतुराई व निर्भय विजेता के रूप में सदियों तक भारत में किवदंती बना रहा।
उग्र भारतीय लड़ाके कबीलों में से एक मालियों के गांव में सिकन्दर की सेना एकत्रित हुई। इस हमले में सिकन्दर कई बार जख्मी हुआ। जब एक तीर उसके सीने के कवच को पार करते हुए उसकी पसलियों में जा घुसा, तब वह बहुत गंभीर रूप से जख्मी हुआ। मेसेडोनियन अधिकारियों ने उसे बड़ी मुश्किल से बचाकर गांव से निकाला। सिकन्दर व उसकी सेना जुलाई 325 ईसा पूर्व में सिंधु नदी के मुहाने पर पहुंची, तथा घर की ओर जाने के लिए पश्चिम की ओर मुड़ी।
मौर्य साम्राज्य
मौर्य साम्राज्य की अवधि (ईसा पूर्व 322 से ईसा पूर्व 185 तक) ने भारतीय इतिहास में एक युग का सूत्रपात किया। कहा जाता है कि यह वह अवधि थी जब कालक्रम स्पष्ट हुआ। यह वह समय था जब, राजनीति, कला, और वाणिज्य ने भारत को एक स्वर्णिम ऊंचाई पर पहुंचा दिया। यह खंडों में विभाजित राज्यों के एकीकरण का समय था। इससे भी आगे इस अवधि के दौरान बाहरी दुनिया के साथ प्रभावशाली ढंग से भारत के संपर्क स्थापित हुए।
सिकन्दर की मृत्यु के बाद उत्पन्न भ्रम की स्थिति ने राज्यों को यूनानियों की दासता से मुक्त कराने और इस प्रकार पंजाब व सिंध प्रांतों पर कब्जा करने का चन्द्रगुप्त को अवसर प्रदान किया। उसने बाद में कौटिल्य की सहायता से मगध में नन्द के राज्य को समाप्त कर दिया और ईसा पूर्व और 322 में प्रतापी मौर्य राज्य की स्थापना की। चन्द्रगुप्त जिसने 324 से 301 ईसा पूर्व तक शासन किया, ने मुक्तिदाता की उपाधि प्राप्त की व भारत के पहले सम्राट की उपाधि प्राप्त की।
वृद्धावस्था आने पर चन्द्रगुप्त की रुचि धर्म की ओर हुई तथा ईसा पूर्व 301 में उसने अपनी गद्दी अपने पुत्र बिंदुसार के लिए छोड़ दी। अपने 28 वर्ष के शासनकाल में बिंदुसार ने दक्षिण के ऊचांई वाले क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की तथा 273 ईसा पूर्व में अपनी राजगद्दी अपने पुत्र अशोक को सौंप दी। अशोक न केवल मौर्य साम्राज्य का अत्यधिक प्रसिद्ध सम्राट हुआ, परन्तु उसे भारत व विश्व के महानतम सम्राटों में से एक माना जाता है।
उसका साम्राज्य हिन्दु कुश से बंगाल तक के पूर्वी भूभाग में फैला हुआ था व अफगानिस्तान, बलूचिस्तान व पूरे भारत में फैला हुआ था, केवल सुदूर दक्षिण का कुछ क्षेत्र छूटा था। नेपाल की घाटी व कश्मीर भी उसके साम्राज्य में शामिल थे।
अशोक के साम्राज्य की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी कलिंग विजय (आधुनिक उड़ीसा), जो उसके जीवन में महत्वपूर्ण बदलाव लाने वाली साबित हुई। कलिंग युद्ध में भयानक नरसंहार व विनाश हुआ। युद्ध भूमि के कष्टों व अत्याचारों ने अशोक के हृदय को विदीर्ण कर दिया। उसने भविष्य में और कोई युद्ध न करने का प्रण कर लिया। उसने सांसरिक विजय के अत्याचारों तथा सदाचार व आध्यात्मिकता की सफलता को समझा। वह बुद्ध के उपदेशों के प्रति आकर्षित हुआ तथा उसने अपने जीवन को, मनुष्य के हृदय को कर्तव्य परायणता व धर्म परायणता से जीतने में लगा दिया।
मौर्य साम्राज्य का अंत
अशोक के उत्तराधिकारी कमज़ोर शासक हुए, जिससे प्रान्तों को अपनी स्वतंत्रता का दावा करने का साहस हुआ। इतने बड़े साम्राज्य का प्रशासन चलाने के कठिन कार्य का संपादन कमज़ोर शासकों द्वारा नहीं हो सका। उत्तराधिकारियों के बीच आपसी लड़ाइयों ने भी मौर्य साम्राज्य के अवनति में योगदान किया।
ईसवी सन् की प्रथम शताब्दि के प्रारम्भ में कुशाणों ने भारत के उत्तर पश्चिम मोर्चे में अपना साम्राज्य स्थापित किया। कुशाण सम्राटों में सबसे अधिक प्रसिद्ध सम्राट कनिष्क (125 ई. से 162 ई. तक), जो कि कुशाण साम्राज्य का तीसरा सम्राट था। कुशाण शासन ईस्वी की तीसरी शताब्दि के मध्य तक चला। इस साम्राज्य की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ कला के गांधार घराने का विकास व बुद्ध मत का आगे एशिया के सुदूर क्षेत्रों में विस्तार करना रही।
गुप्त साम्राज्य
कुशाणों के बाद गुप्त साम्राज्य अति महत्वपूर्ण साम्राज्य था। गुप्त अवधि को भारतीय इतिहास का स्वर्णिम युग कहा जाता है। गुप्त साम्राज्य का पहला प्रसिद्ध सम्राट घटोत्कच का पुत्र चन्द्रगुप्त था। उसने कुमार देवी से विवाह किया जो कि लिच्छिवियों के प्रमुख की पुत्री थी। चन्द्रगुप्त के जीवन में यह विवाह परिवर्तन लाने वाला था। उसे लिच्छिवियों से पाटलीपुत्र दहेज में प्राप्त हुआ। पाटलीपुत्र से उसने अपने साम्राज्य की आधार शिला रखी व लिच्छिवियों की मदद से बहुत से पड़ोसी राज्यों को जीतना शुरू कर दिया। उसने मगध (बिहार), प्रयाग व साकेत (पूर्वी उत्तर प्रदेश) पर शासन किया। उसका साम्राज्य गंगा नदी से इलाहाबाद तक फैला हुआ था। चन्द्रगुप्त को महाराजाधिराज की उपाधि से विभूषित किया गया था और उसने लगभग पन्द्रह वर्ष तक शासन किया।
चन्द्रगुप्त का उत्तराधिकारी 330 ई0 में समुन्द्रगुप्त हुआ जिसने लगभग 50 वर्ष तक शासन किया। वह बहुत प्रतिभा सम्पन्न योद्धा था और बताया जाता है कि उसने पूरे दक्षिण में सैन्य अभियान का नेतृत्व किया तथा विन्ध्य क्षेत्र के बनवासी कबीलों को परास्त किया।
समुन्द्रगुप्त का उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त हुआ, जिसे विक्रमादित्य के नाम से भी जाना जाता है। उसने मालवा, गुजरात व काठियावाड़ के बड़े भूभागों पर विजय प्राप्त की। इससे उन्हे असाधारण धन प्राप्त हुआ और इससे गुप्त राज्य की समृद्धि में वृद्धि हुई। इस अवधि के दौरान गुप्त राजाओं ने पश्चिमी देशों के साथ समुद्री व्यापार प्रारम्भ किया। बहुत संभव है कि उसके शासनकाल में संस्कृत के महानतम कवि व नाटककार कालीदास व बहुत से दूसरे वैज्ञानिक व विद्वान फले-फूले।
गुप्त शासन की अवनति
ईसा की 5वीं शताब्दि के अन्त व छठवीं शताब्दि में उत्तरी भारत में गुप्त शासन की अवनति से बहुत छोटे स्वतंत्र राज्यों में वृद्धि हुई व विदेशी हूणों के आक्रमणों को भी आकर्षित किया। हूणों का नेता तोरामोरा था। वह गुप्त साम्राज्य के बड़े हिस्सों को हड़पने में सफल रहा। उसका पुत्र मिहिराकुल बहुत निर्दय व बर्बर तथा सबसे बुरा ज्ञात तानाशाह था। दो स्थानीय शक्तिशाली राजकुमारों मालवा के यशोधर्मन और मगध के बालादित्य ने उसकी शक्ति को कुचला तथा भारत में उसके साम्राज्य को समाप्त किया।
हर्षवर्धन
7वीं सदी के प्रारम्भ होने पर, हर्षवर्धन (606-647 इसवी में) ने अपने भाई राज्यवर्धन की मृत्यु होने पर थानेश्वर व कन्नौज की राजगद्दी संभाली। 612 इसवी तक उत्तर में अपना साम्राज्य सुदृढ़ कर लिया।
620 इसवी में हर्षवर्धन ने दक्षिण में चालुक्य साम्राज्य, जिस पर उस समय पुलकेसन द्वितीय का शासन था, पर आक्रमण कर दिया परन्तु चालुक्य ने बहुत जबरदस्त प्रतिरोध किया तथा हर्षवर्धन की हार हो गई। हर्षवर्धन की धार्मिक सहष्णुता, प्रशासनिक दक्षता व राजनयिक संबंध बनाने की योग्यता जगजाहिर है। उसने चीन के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए व अपने राजदूत वहां भेजे, जिन्होने चीनी राजाओं के साथ विचारों का आदान-प्रदान किया तथा एक दूसरे के संबंध में अपनी जानकारी का विकास किया।
चीनी यात्री ह्वेनसांग, जो उसके शासनकाल में भारत आया था ने, हर्षवर्धन के शासन के समय सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक स्थितियों का सजीव वर्णन किया है व हर्षवर्धन की प्रशंसा की है। हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद भारत एक बार फिर केंद्रीय सर्वोच्च शक्ति से वंचित हो गया।
बादामी के चालुक्य
6ठवीं और 8ठवीं इसवी के दौरान दक्षिण भारत में चालुक्य बड़े शक्तिशाली थे। इस साम्राज्य का प्रथम शासक पुलकेसन, 540 इसवी मे शासनारूढ़ हुआ और कई शानदार विजय हासिल कर उसने शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना किया। उसके पुत्रों कीर्तिवर्मन व मंगलेसा ने कोंकण के मौर्यन सहित अपने पड़ोसियों के साथ कई युद्ध करके सफलताएं अर्जित की व अपने राज्य का और विस्तार किया।
कीर्तिवर्मन का पुत्र पुलकेसन द्वितीय, चालुक्य साम्राज्य के महान शासकों में से एक था, उसने लगभग 34 वर्षों तक राज्य किया। अपने लम्बे शासनकाल में उसने महाराष्ट्र में अपनी स्थिति सुदृढ़ की व दक्षिण के बड़े भूभाग को जीत लिया, उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि हर्षवर्धन के विरूद्ध रक्षात्मक युद्ध लड़ना थी।
तथापि 642 इसवी में पल्लव राजा ने पुलकेसन को परास्त कर मार डाला। उसका पुत्र विक्रमादित्य, जो कि अपने पिता के समान महान शासक था, गद्दी पर बैठा। उसने दक्षिण के अपने शत्रुओं के विरूद्ध पुन: संघर्ष प्रारंभ किया। उसने चालुक्यों के पुराने वैभव को काफी हद तक पुन: प्राप्त किया। यहां तक कि उसका परपोता विक्रमादित्य द्वितीय भी महान योद्धा था। 753 इसवी में विक्रमादित्य व उसके पुत्र का दंती दुर्गा नाम के एक सरदार ने तख्ता पलट दिया। उसने महाराष्ट्र व कर्नाटक में एक और महान साम्राज्य की स्थापना की जो राष्ट्र कूट कहलाया।
कांची के पल्लव
छठवीं सदी की अंतिम चौथाई में पल्लव राजा सिंहविष्णु शक्तिशाली हुआ तथा कृष्णा व कावेरी नदियों के बीच के क्षेत्र को जीत लिया। उसका पुत्र व उत्तराधिकारी महेन्द्रवर्मन प्रतिभाशाली व्यक्ति था, जो दुर्भाग्य से चालुक्य राजा पुलकेसन द्वितीय के हाथों परास्त होकर अपने राज्य के उत्तरी भाग को खो बैठा। परन्तु उसके पुत्र नरसिंह वर्मन प्रथम ने चालुक्य शक्ति का दमन किया। पल्लव राज्य नरसिंह वर्मन द्वितीय के शासनकाल में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचा। वह अपनी स्थापत्य कला की उपलब्धियों के लिए प्रसिद्ध था, उसने बहुत से मन्दिरों का निर्माण करवाया तथा उसके समय में कला व साहित्य फला-फूला। संस्कृत का महान विद्वान दानदिन उस के राजदरबार में था। तथापि उसकी मृत्यु के बाद पल्लव साम्राज्य की अवनति होती गई। समय के साथ-साथ यह मात्र स्थानीय कबीले की शक्ति के रूप में रह गया। आखिरकार चोल राजा ने 9वीं इसवी. के समापन के आस-पास पल्लव राजा अपराजित को परास्त कर उसका साम्राज्य हथिया लिया।
भारत के प्राचीन इतिहास ने, कई साम्राज्यों, जिन्होंने अपनी ऐसी बपौती पीछे छोड़ी है, जो भारत के स्वर्णिम इतिहास में अभी भी गूंज रही है, का उत्थान व पतन देखा है। 9वीं इसवी. के समाप्त होते-होते भारत का मध्यकालीन इतिहास पाला, सेना, प्रतिहार और राष्ट्र कूट आदि – आदि उत्थान से प्रारंभ होता है।
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