उधर बाजारों में बढ़ रही है चीजों के दाम ॥
भूख की कीमत वो क्या जानें, जिनके भरे हैं गोदाम ॥
गरीबी गरीबों का ले रही है दम, और रोज अखबार में आता है महॅंगायी है कम॥
जो पसीने से सींच रहे है खेतों को अपने
फसलें ही होती है जिनके सपने ॥
आज उन सपनों को दीमक लग चुकी है
और खुन का हर कतरा कर्ज की बलि चढ़ चुकी है॥
महॅंगायी-महॅंगायी का खेल हर रोज खेला जाता है
आम आदमी को , आसानी से पीसा जाता है ॥
टैक्सों के बोझ से जिसकी ऑंखें हैं नम
उसे तो चीनी भी लगती है मिठी कम ॥
पत्थरों की कीमत सरे आम बढ़ रही है
इन्सानियत इन्सान से लड़ रही है ॥
और कम से कम हम तो रखें किसानों का मान
जय किसान जय किसान जय किसान॥
बाबरे से इस जहां में बाबरा इक साथ हो
इस सयानी भीड़ में बस हाथो में तेरा हाथ हो
बाबरी सी घुन हो कोई बाबरा इक राग हो
बाबरे से बैर जाए बाबरे तरानों के ,बाबरे से बोल पर थिरकना
बाबरा मन देखने चला इक सपना ……
बाबरा सा हो अँधेरा बाबरी खामोशियाँ
थरथराती लौ हो मद्धम बाबरी मदहोशियाँ
बाबरा इक घुंघटा चाहे हौले हौले बिन बताये
बाबरे से मुखरे से सरकना …………
बाबरा मन देखने चला इक सपना ………
प्रेमियों की शक्ल कुछ-कुछ भूत होनी चाहिए,
अक्ल उनकी नाप में चाह शूट होनी चाहिए .
इश्क करने के लिए काफी कलेजा ही नहीं,
आशिकको की चाँद भी मजबूत होनी चाहिए .
मार खाना लीडरों का कर्म होना चाहिए,
मोर्चे से भाग जाना धरम होना चाहिए .
लीडरों में शर्म का होना जरुरी है नहीं,
लीडरों को लाज़मी बेशर्म होना चाहिए .
गुजरती जा रही है जिन्दगी आहिस्ता आहिस्ता।
कोई इतिहास रचे जाने को है कोई ख्याल दिल से उमड़ आने को है।
गमों की परछाई में चमकता हुआ सूरज हॅूं मैं या मैं हॅूं वो दिया जो घनघोर अंघेरो से लड़ रहा है।
इस काली घटा में आशा की किरण हॅूं मैं या चिड़ियों की चहचहाहट हॅूं मैं।
इस दूखों की दुनिया में अकेली मुस्कान हॅूं मैं या मैं हॅूं वो आसू जो खुशियों में निकल आती है अक्सर ॥
कौन हॅ मैं। कौन हॅ मैं।
आत्माओं के मंथन से निकला अमृत हॅूं मै या मनुप्य रुपी विष हॅूं मैं।
मैं हॅूं वो परवाना जो समा को पाने के लिए जल जाता है या जलती हुई समा हॅूं मैं।
सूरज से चमकने वाला चॉंद हॅूं मैं या अमवस्या की काली रात हॅूं मैं ।
पतझड़ की सूखी साख हॅूं मैं या बसन्त की बहार हॅूं मैं ॥
कौन हॅ मैं। कौन हॅ मैं।
गुजरती जा रही है जिन्दगी आहिस्ता आहिस्ता।
by aman kumar sinha
चलो फिर एक बार चलते हैं
हक़ीक़त में खिलते हैं फूल जहाँ
महकता है केसर जहाँ
सरसों के फूल और लहलहाती हैं फसलें
हँसते हैं रंग-बिरंगे फूल
मंड़राती हैं तितलियाँ
छेड़ते हैं भँवरें झूलती हैं झूलों में धड़कनें
घेर लेती हैं सतरंगी दुप्पटों से
सावन की फुहारों में चूमती है मन को
देती है जीवन जहाँ जीवन लगता है सपना
आओ फिर एक बार, चलते हैं।
पेड, कटे तो छाँव कटी फिर आना छूटा चिड़ियों का
आँगन आँगन रोज, फुदकना गाना छूटा चिड़ियों का
आँख जहाँ तक देख रही है चारों ओर बिछी बारूद
कैसे पाँव धरें धरती पर‚ दाना छूटा चिड़ियों का
कोई कब इल्ज़ाम लगा दे उन पर नफरत बोने का
इस डर से ही मन्दिर मस्जिद जाना छूटा चिड़ियों का
मिट्टी के घर में इक कोना चिड़ियों का भी होता था
अब पत्थर के घर से आबोदाना छूटा चिड़ियों का
टूट चुकी है इन्सानों की हिम्मत कल की आँधी से
लेकिन फिर भी आज न तिनके लाना छूटा चिड़ियों का
मुझे इश्तहार-सी लगती हैं, ये मोहब्बतों की कहानियाँ
जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सुना नहीं वो कहा करो
कुछ ऐसा खोया उसकी निगाहों में,
की गीत मोह्हबत के गाता रहा,
कुछ इतनी कातिलाना थी अदाएं उसकी,
की किस्सा क़यामत का सबको सुनाता रहा,
उसने जो तिरछी नजर से देखा मुझे,
में खुद को गिरने से संभालता रहा,
जो हटाया उसने चेहरे से नकाब अपने,
में अपने सर को उसके आगे झुकाता रहा,
जो थामे थे उसने कभी हाथ मेरे,
वो हाथ दिल पर रख के दिल को बहलाता रहा,
कोई तोड़ ना दे दिल उसका कहकर बेवफा,
इसलिए में खुद को गुन्हेगार उसका बतलाता रहा,
कुछ ऐसा समाया था वो मेरी आँखों में,
की दूर जाकर भी मेरे अश्कों में वो नजर आता रहा
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